खेती में नवाचार की बागडोर संभालती महिला शक्ति

Author : Sushma Singh

खेती में नवाचार की बागडोर संभालती महिला शक्ति

भविष्य की खेती अतीत के अनुभवों से निकलती है। लेकिन दुर्भाग्य से हम यह भुला बैठे हैं कि अगर हमने अपने बीते हुए रास्तों को विस्मृत या नजरअंदाज कर दिया, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि आने वाली पीढ़ियों को हम मिट्टी नहीं सौंप पाएंगे। बल्कि उन्हें मयस्सर होगी तो सिर्फ और सिर्फ बंजर ज़मीन। इसके साथ-साथ हमें एक और बात समझने की ज़रूरत है कि हमारा भविष्य संवारने और उसकी राह दिखाने वाली सबसे बड़ी शक्ति गांव की वे महिलाएं हैं, जो आज न केवल खेतों की हरियाली को बचाए हुए हैं, अपितु हमारी नीतियों, विचारों और समाज को भी सींच रही हैं।

स्मार्टनेस केवल स्क्रीन पर उंगलियां चलाने से नहीं आती

आज जब स्मार्ट खेती की बात होती है, तो इसमें ड्रोन, सैटेलाइट इमेज, सॉइल सेंसर और डेटा ऐनालिटिक्स की बात होती है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि स्मार्टनेस केवल स्क्रीन पर उंगलियां चलाने से नहीं आती। असली स्मार्टनेस तब होती है, जब आप मिट्टी की गंध को पहचान सकें। उसकी विशिष्टताओं और गुणों से परिचित हो सकें। ऐसे ही, बीजों की भाषा को समझ सकें और बारिश से पहले हवा के रुख को पढ़ सकें। यक़ीनन, इसकी समझ और संवेदना हमें ऐप्स से नहीं, बल्कि अपनी दादी-नानी से मिली थी। हमने अपने ऐसे अनेक बहुमूल्य और अप्रतिम गुणों को मिट्टी में दबा दिया, जबकि वह जानकारियां और चर्चाएं अभी भी वही है एकदम जीवंत। बस, यह हमारे जागने का इंतज़ार कर रही है।

खेती की ज़मीन मुनाफे की बजाय बोझ बन गई

भारत कृषि प्रधान देश है। लेकिन एक लंबा समय ऐसा बीता जब हमने अपनी कृषि परंपरा को बाहरी सलाहों और रासायनिक प्रयोगों के हवाले कर दिया। फसलें बढ़ीं, पर मिट्टी कमज़ोर और बीमार हो गई। उत्पादन बढ़ा, पर आत्मनिर्भरता खो गई। किसान, क्रेडिट कार्ड से कर्जदार हो गया और खेती की ज़मीन मुनाफे की बजाय बोझ बन गई। यही कारण है कि आज गांव की तस्वीरें हरी कम और चिंतित ज़्यादा हैं। लेकिन उम्मीद की किरण वहां से फूट रही है, जहां हम अक्सर नहीं देखते गांव की औरतें। वे जो कल तक खेतों के हाशिये पर थीं, लेकिन वो आज उस बदलाव की अगुवाई कर रही हैं, जिसे हम ‘वास्तविक नवाचार’ कह सकते हैं।

प्राकृतिक खेती: अतीत का नवाचार

भारत में आज प्राकृतिक खेती का एक अभिनव आंदोलन खड़ा हो रहा है- और यह कोई शहरी प्रयोगशाला में बना मॉडल नहीं है। यह वही खेती है, जिसमें जीवामृत, बीजामृत, देशी गाय के गोबर और गोमूत्र से खेतों की उर्वरता बढ़ाई जाती है। यह वह विज्ञान है, जो बिना अंग्रेज़ी के समझ में आता है और बिना लागत के लाभ देता है। यह खेती मिट्टी को पुनः जीवित करती है, किसान को आत्मनिर्भर बनाती है और उपभोक्ता को सुरक्षित भोजन प्रदान करती है।

कई राज्यों ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया गया है। आंध्र प्रदेश की ‘रायथु साधिकार संस्था’ द्वारा व्यापक रूप से अपनाई गई ज़ीरो बजट नेचुरल फार्मिंग हो, या हिमाचल और कर्नाटक में महिला समूहों की पहल- ये सभी इस बात के उदाहरण हैं जहां खेती का भविष्य उसी रास्ते से होकर जाता है, जिस रास्ते से हमारी पुरानी पीढ़ी चलती थी। मध्य प्रदेश में आदिवासी महिलाओं द्वारा जैविक उत्पादों को ब्रांडिंग के साथ बेचना और उन्हें डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स जैसे अमेजन, फ़्लिपकार्ट, और जीईएम पर लाना यह दिखाता है कि महिला-किसान अब केवल खेत की मजदूर नहीं, बल्कि एक कुशल उद्यमी भी है।

महिलाएं : नवाचार की असली वाहक

अद्भुत बात यह है कि महिलाएं प्राकृतिक खेती को केवल एक तकनीकी-कार्य नहीं मानतीं। उनके लिए यह एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्य है। वे जिस मिट्टी में बीज बोती हैं, उसे मां मानती हैं। वे जानती हैं कि उस मिट्टी पर ज़हर डालना, ख़ुद के घर पर ज़हर डालने जैसा है। यही वह जुड़ाव है, जो आज की खेती में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

महिलाएं मौसम की भाषा समझती हैं

महिलाएं मौसम की भाषा को समझती हैं। उन्हें पता होता है कि हवा में नमी कब बढ़ी कि कौन सा बीज इस साल अच्छा चलेगा और यह भी कि खेत में पांव रखते ही उन्हें मालूम चल जाता है कि अमुक खेत में कौन सी और कैसी समस्या है। यह डेटा किसी सैटेलाइट से नहीं, अनुभव से आता है। वास्तव में, यही वह अनुभव है जो हमें आज नीति निर्माण में शामिल करना होगा। आज कई महिला स्वयं सहायता समूह न केवल जैविक खेती कर रहे हैं, बल्कि कृषि-उद्यमिता को भी बढ़ावा दे रहे हैं। ये संस्थाएं ब्रांड बना रही हैं, पैकेजिंग कर रही हैं, सोशल मीडिया पर मार्केटिंग कर रही हैं और अपने गांव के अन्य परिवारों को प्रेरित भी कर रही हैं। यह वह ‘साइलेंट इनोवेशन’ है, जिसे हमने लंबे समय तक नजरअंदाज किया।

उत्तराखंड : परंपरा को भूला तो रूठी प्रकृति

अगर आप उत्तराखंड या हिमालयी क्षेत्रों की हालिया आपदाओं को देखें मसलन भूस्खलन, बाढ़, बादल का फटना आदि तो यह स्पष्ट समझ में आता है कि हम केवल प्रकृति की मार नहीं झेल रहे हैं, बल्कि हम अपने ही विकास मॉडल की सजा भुगत रहे हैं। पहाड़ों की पारंपरिक सीढ़ीदार खेती की विधि अनुकरणीय पहचान थी, जिसमें मनुष्य ने प्रकृति के साथ मिलकर उसके अनुकूल खेती की।

वह सिर्फ ज़मीन के स्तर का मामला नहीं था, बल्कि एक जल प्रबंधन, मिट्टी संरक्षण और सामाजिक ज्ञान का संपूर्ण विज्ञान था। लेकिन जैसे ही हमने उसे ‘पुराना’ कहकर खारिज किया, हमने प्रकृति का संतुलन एकदम से बिगाड़ दिया। इसलिए, अब समय आ गया है कि हम उन भूली हुई विधियों को फिर से अपनाएं और इस बदलाव की सबसे मजबूत कड़ी है पहाड़ी इलाकों की वे महिलाएं, जो अब भी परंपराओं से जुड़ी हैं, जो अब भी अपनी मिट्टी को समझती हैं। ऐसे में उन्हें लाभार्थी नहीं, नेतृत्वकर्ता बनाना होगा।

सरकार की भूमिका :

जब ज़मीनी अनुभवों से जुड़ती है नीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार प्राकृतिक खेती, परंपरागत कृषि ज्ञान और श्रीअन्न (मोटे अनाज) को अपनाने की बात की है। नीति आयोग और कृषि मंत्रालय ने भी इस दिशा में कई योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन इन योजनाओं का असली प्रभाव तभी होगा, जब उन्हें ज़मीनी अनुभवों और महिला नेतृत्व से जोड़ा जाएगा। देखा जाए तो अभी भी कृषि से जुड़ी ज़्यादातर नीतियां पुरुष-केंद्रित सोच से बनती हैं। जबकि हकीकत यह है कि गांव की महिलाएं खेती का लगभग 60 फीसदी कार्यभार निभाती हैं। इसलिए समझने वाली बात है कि उन्हें सिर्फ ‘लाभार्थी’ मानना एक बहुत बड़ी चूक है।

नवाचार परंपरा की नई व्याख्या :

हम अक्सर सोचते हैं कि नवाचार का अर्थ है कोई नई मशीन, नई तकनीक या नई प्रणाली को तैयार करना। जबकि असल में नवाचार का अर्थ है किसी समस्या का अभिनव समाधान करना। हालांकि कभी-कभी वह समाधान हमारे पास पहले से भी होता है, बस उसे फिर से अपनाने की जरूरत होती है। इस संदर्भ में अगर किसी को प्राकृतिक खेती, महिला नेतृत्व और परंपरागत तकनीकों को फिर से अपनाना ‘पुरातनपंथी’ लगता है, तो उन्हें अपने नवाचार की परिभाषा को समझने वाले दृष्टिकोण को बदलने की ज़रूरत है। क्योंकि असली बदलाव वहीं से आता है, जहां से सामूहिक समझ, संवेदना और समाज की जरूरतें जुड़ती हैं।

जहां स्त्री, वहां सृजन :

भारत की कृषि को अगर आत्मनिर्भर बनाना है, तो केवल रसायन या तकनीक नहीं, बल्कि उसे संवेदना, परंपरा और महिला शक्ति की भी ज़रूरत है। महिलाएं केवल खेत की ताकत भर नहीं हैं, वे नीति-निर्माण, नवाचार और प्रकृति के साथ जुड़ाव की सबसे बड़ी उम्मीद होती हैं। इसलिए हमें उनकी आवाज़ को मंच देना होगा, उनके अनुभवों को विज्ञान की तरह सम्मान देना होगा और उनकी दृष्टि को नीति की दृष्टि बनाना होगा। अंततः तभी जाकर भारत की धरती फिर से मुस्कुराएगी- हरी, सुरक्षित और आत्मनिर्भर बनेगी।

-(सुषमा सिंह, सदस्य – शासी निकाय (आईसीएआर, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार) एवं पूर्व उपाध्यक्ष – उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग)