शिव की काशी से शिवराय तक, वर्तमान का गौरव बनकर लौट रहा अतीत 

शिव की काशी से शिवराय तक, वर्तमान का गौरव बनकर लौट रहा अतीत 

मां गंगा के आंचल से महाराष्ट्र के गढ़कोटों तक, मंदिरों की नक्काशियों से लेकर पुरानी भाषाओं की गूंज तक-अतीत अब वर्तमान का गौरव बनकर लौट रहा है। यह कोई स्वप्नलोक की कल्पना नहीं बल्कि राम की मर्यादा, कृष्ण की कर्तव्य परायणता और शिव के संतुलन पर टिके एक देश के सतत प्रयासों की वह ध्वनि है जिसने भारत को उसकी सांस्कृतिक आत्मा से फिर से जोड़ दिया है। इसी का नतीजा है कि आज जब दुनिया में बात विश्व हेरिटेज कैपिटल की होती है तो एक ही नाम जुबान पर आता है- भारत। बीते एक दशक में भारत में जागृत हुई नई सांस्कृतिक चेतना इसके पीछे की बड़ी वजह है। इस एक दशक में न सिर्फ विलुप्त हो रही संस्कृति का पुनरुत्थान हुआ है बल्कि अपने गौरवशाली इतिहास के प्रति चेतना भी जागृत हुई है।

शिवराय की ‘मुहर’

वर्ष 2014 से लेकर अब तक भारत ने यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में कुल सात नए स्थलों को दर्ज कराया है, जो किसी भी दशक की तुलना में सबसे अधिक है। इनमें सबसे ताजा और ऐतिहासिक कदम है ‘मराठा सैन्य परिदृश्य (Maratha Military Landscapes)’ का यूनेस्को में शामिल होना। इसमें छत्रपति शिवाजी महाराज के 12 किलों को एकसाथ विश्व धरोहर घोषित किया गया- जिनमें रायगढ़, शिवनेरी, प्रतापगढ़, राजगढ़, लोणावला का लोहगढ़, सलेहर, विजापुर का गिंजी किला, सिंधुदुर्ग, पन्हाला और सुवर्णदुर्ग जैसे किले शामिल हैं।

यह केवल स्थापत्य की जीत नहीं बल्कि एक वैचारिक पुनर्स्थापना है जो यह प्रमाणित करती है कि स्वतंत्रता की चेतना, स्वराज्य का विचार और सामरिक रणनीति की भारतीय परंपरा आज भी वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है। यह सांस्कृतिक अस्मिता के अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर शिवराय की मुहर है।

इससे पहले 2023 में होयसल वास्तुकला के तीन मंदिरों-बेलूर, हेलेबिदु और सोमनाथपुरा को ‘Sacred Ensembles of the Hoysalas’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया। इन मंदिरों की शिल्पकला, पंचरथ योजना और पत्थर में कथा गढ़ने की कला, दक्षिण भारत की धार्मिक भव्यता का अनोखा उदाहरण हैं।

उसी वर्ष शांतिनिकेतन, रवींद्रनाथ ठाकुर की स्थापित ज्ञानपीठ को भी यूनेस्को में स्थान मिला। यह भारत की आधुनिक वैचारिक विरासत का प्रतीक स्थल है, जहां ज्ञान, सौंदर्य और मानवता का संगम हुआ करता था।

2021 में तेलंगाना का रामप्पा मंदिर और गुजरात का धोलावीरा, दोनों को यूनेस्को की मान्यता प्राप्त हुई। धोलावीरा, हड़प्पा सभ्यता का सबसे संरक्षित नगर है, जल प्रबंधन और शहरी नियोजन में आज भी शोध का विषय है।

2024 में पहली बार अहोम राजाओं के समाधिस्थल असम के चाराइदेव मोइडम (Charaideo Moidams) को भी विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया। इसने पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक पहचान को वैश्विक मंच पर पहुंचाया।

तीर्थ स्थलों का कायाकल्प

इस एक दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण केवल संग्रहालयों और सूचीबद्ध धरोहरों तक सीमित नहीं रहा। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में अनेक प्राचीन धार्मिक स्थलों का कायाकल्प हुआ जिससे न केवल श्रद्धालुओं का अनुभव बेहतर हुआ, बल्कि आध्यात्मिक पर्यटन में अभूतपूर्व वृद्धि भी देखने को मिली।

प्रधानमंत्री मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट्स में से एक, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर न केवल एक मंदिर परिसर का विस्तार था बल्कि संपूर्ण वाराणसी की सांस्कृतिक आत्मा को पुनर्जीवित करने का उपक्रम साबित हुआ। गंगा घाट से सीधा मंदिर तक की अबाध यात्रा, पुराने मंदिरों का उद्धार, गलियों की पुनर्रचना और एक शुद्ध आध्यात्मिक वातावरण की रचना यह सब उस परिकल्पना का हिस्सा था जिसमें धर्म और आधुनिकता सह-अस्तित्व में आ सकें।

केदारनाथ धाम, जो 2013 की त्रासदी में बर्बाद हो गया था आज अपनी नवीन भव्यता के साथ खड़ा है। धाम को आपदा-रोधी संरचना में परिवर्तित कर नई टेक्नोलॉजी के सहारे ‘ग्रीन जोन’ के रूप में पुनर्निर्मित किया गया। चारधाम सड़क परियोजना और रेल संपर्क का विस्तार भी तीर्थयात्रियों के लिए बड़ा परिवर्तन है। महाकाल लोक (उज्जैन), सोमनाथ मंदिर (गुजरात), कामाख्या मंदिर (असम) और पावागढ़ का कालिका माता मंदिर- इन सभी को न केवल संरक्षित किया गया बल्कि उनके परिसर, यातायात, सौंदर्य और श्रद्धालु सुविधाओं को आधुनिक स्वरूप में ढाला गया। देश की सीमाओं से परे, अबू धाबी और बहरीन में हिन्दू मंदिरों के निर्माण और पुनरुद्धार को भारतीय सांस्कृतिक कूटनीति का हिस्सा बनाया गया। भारत की आस्था अब सीमाओं से मुक्त हो चुकी है।


भाषा और साहित्य का पुनर्संवर्धन

मोदी सरकार का यह सांस्कृतिक अभियान केवल मूर्त रूपों तक सीमित नहीं रहा अपितु भाषाओं और पारंपरिक साहित्य को भी विशेष सम्मान मिला। 2024 में सरकार ने असमिया, मराठी, पाली, प्राकृत और बांग्ला को ‘शास्त्रीय भाषा’ का दर्जा प्रदान किया। इससे पहले तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और उड़िया को यह दर्जा प्राप्त था। यह भाषा-विविधता की रक्षा के साथ-साथ अकादमिक और साहित्यिक संरक्षण का संकेतक भी है।

साथ ही, तीन भारतीय ग्रंथ- रामचरितमानस, पंचतंत्र और साहित्यशास्त्र पर आधारित ‘सहृदयालोक-लोचन’ को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड’ क्षेत्रीय सूची में शामिल किया गया। यह न केवल साहित्यिक बल्कि नैतिक और सभ्यतागत पहचान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता का संकेत है।

महापुरुषों की स्मृति का सम्मान

भारत ऋषियों और वीरों की स्मृति का राष्ट्र है। आज इन महापुरुषों की विरासत केवल प्रतीकों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उन्हें यथार्थ रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है। हैदराबाद में रामानुजाचार्य की 216 फुट ऊंची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी’, कोयंबत्तूर में 112 फुट ऊंची ‘अदियोगी शिव’ की प्रतिमा, गुरु तेगबहादुर जी की शहादत पर आधारित ‘शहीदी पर्व’, और गुरु गोबिंद सिंह के पुत्रों की स्मृति में मनाया जाने वाला ‘वीर बाल दिवस’ ये सभी स्मारक केवल मूर्त नहीं बल्कि विचारधारा के जीवंत प्रतीक बन गए हैं। यह भारत के सांस्कृतिक डीएनए को सार्वजनिक जीवन में पुनः प्रतिष्ठित करने की पहल है, जो राजनीति से ऊपर उठकर आत्मा के स्तर पर समाज को जोड़ती है।

संस्कृति के माध्यम से विश्वशक्ति का मार्ग

भारत ने 2024 में यूनेस्को विश्व धरोहर समिति की बैठक की मेजबानी कर यह संदेश दिया कि वह केवल अपने ही नहीं बल्कि विश्व की सांस्कृतिक धरोहरों का संवाहक भी है। इसके अलावा ‘Adopt-a-Heritage’ जैसी योजनाओं के जरिए जहां प्राइवेट कंपनियां ऐतिहासिक स्थलों को संरक्षण हेतु अपनाती हैं। ये पहल एक अभिनव सांस्कृतिक मॉडल बन रही है। 2014 के बाद से भारत ने विदेशों से 642 प्राचीन कलाकृतियां भी वापस लाई हैं जो वर्षों से चोरी, तस्करी या उपेक्षा का शिकार थीं। इनमें चोल काल की कांस्य मूर्तियां, गुप्त काल की देवी-प्रतिमाएं और बौद्ध धरोहरें शामिल हैं।

सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता का नया युग

भारत का ये सांस्कृतिक पुनरुत्थान केवल मंदिरों, भाषाओं या स्मारकों तक सीमित नहीं है, यह उस आत्मबल का पुनर्जागरण है जो शताब्दियों के उपेक्षित मानस में सोया पड़ा था। यह पुनर्जागरण राजनैतिक से अधिक आध्यात्मिक है; यह स्थापत्य से अधिक वैचारिक है। शिवाजी महाराज के किलों से लेकर काशी की गलियों तक जो कभी स्वराज्य का सपना था, अब वह भारत की सांस्कृतिक रणनीति का हिस्सा बन चुका है। गर्व, गौरव और गहराई से अपनी मिट्टी की जड़ों से जुड़ा नया भारत दुनिया के लिए आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चेतना के सबसे बड़े केंद्र के तौर पर स्थापित हो चुका है। मोदी सरकार के इस सांस्कृतिक कालखंड को भविष्य के इतिहासकार ‘भारत के पुनर्जागरण का दशक’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

-(वरिष्ठ पत्रकार अमित शर्मा की राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय, राजनीतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मुद्दों पर गहरी पकड़ है)