समर शेष है, नहीं ‘पाप’ का भागी केवल व्याध’

Author : Amit Sharma

‘समर शेष है, नहीं ‘पाप’ का भागी केवल व्याध’

इस देश ने न जाने कितने आक्रमण झेले लेकिन हर बार उसने आक्रांताओं को मुंहतोड़ जवाब दिया। चाहे सीमा पार से आए दुश्मन हों या भीतर छिपे हुए ‘जयचंद’, हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। हर संकट में यह राष्ट्र एकजुट होकर खड़ा हुआ। गुरु नानक देव से लेकर गांधी तक, हमारे महापुरुषों ने दुनिया को एकता, शांति व सहअस्तित्व का संदेश दिया लेकिन विडंबना है कि राजनैतिक विद्वेश आज इन आदर्शों के अपमान की वजह बनता जा रहा है। दिल्ली ब्लास्ट के बाद जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं देखने और सुनने को मिलीं, उसने इसी दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति को फिर उजागर कर दिया जो एक राष्ट्रीय चरित्र के लिए चिंता का विषय है।

बिना किसी आधिकारिक रिपोर्ट के बयानबाजी?

11 नवंबर 2025 को दिल्ली में लाल किले के पास हुए ब्लास्ट के कुछ ही घंटों में जांच-एजेंसियां सक्रिय हुईं, सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत गृहमंत्री अमित शाह से बात की। गृहमंत्री शाह स्वयं घटनास्थल पर पहुंचे, अस्पताल में घायलों से मिले। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कहा कि दोषियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। दूसरे ही दिन जांच के लिए एनआईए की स्पेशल टीम भी गठित कर दी गई। भूटान दौरे से लौटते ही प्रधानमंत्री तुरंत एलएनजेपी अस्पताल पहुंचे और घायलों का हाल जाना लेकिन दुर्भाग्य है कि घटना की गंभीरता और जांच के प्राथमिक चरण के बीच ही राजनीतिक बयानबाज़ी का सिलसिला शुरू हो गया।

विपक्षी नेताओं ने बिना किसी आधिकारिक रिपोर्ट के बयानबाजी करना शुरू कर दिया। किसी ने खुफिया तंत्र की विफलता बताई तो किसी ने हमेशा की तरह इस्तीफों की मांग कर दी, जबकि पूरी हकीकत सबके सामने आना अभी बाकी है। हद तो तब हो गई जब कुछ नेताओं ने राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मामले को भी चुनाव से जोड़कर पेश करने की कोशिश की। देश की राजधानी को ही असुरक्षित बताते हुए अफवाहों को हवा दी। इसे जख्म पर नमक छिड़कने का गंदा राजनीतिक खेल न कहा जाए तो क्या कहा जाए?

संकट के समय असंवेदनशील चेहरा

इसमें कोई शक नहीं कि लोकतंत्र में विपक्ष का दायित्व होता है कि वह सरकार से प्रश्न पूछे परंतु जब तमाम तरह की अफवाहों का बाजार गर्म हो, सुरक्षा एजेंसियां मौके पर हालात सामान्य करने में जुटी हों, जब घायलों की जान बचाने की कोशिशें की जा रही हों तब क्या राजनीति का यही स्वरूप होना चाहिए? क्या यह वह समय था जब विपक्ष को अपने चुनावी नारे आज़माने चाहिए थे? उन्हें अफवाहों को हवा देनी चाहिए या एकजुटता का संदेश देना चाहिए?

हर संकट में अवसर तलाशने की प्रवृत्ति?

दर्द को भी अवसर समझने की ये राजनीतिक प्रवृत्ति पुरानी है। इससे पहले भी तमाम ऐसे मौके आए जब अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के अलावा देश के अंदर से भी माहौल अस्थिर करने की बेदम कोशिशें की गईं।

CAA विरोध के दौरान हिंसा को हवा देने की कोशिश

2019-20 के दौरान दिल्ली में CAA विरोध के दौरान हिंसा को हवा देने की कोशिशों को देश अभी भूला नहीं है। इस दौरान कई नेताओं ने पुलिस कार्रवाई को ‘अल्पसंख्यकों पर सुनियोजत अत्याचार’ बताया। जबकि कई घटनाओं में पुलिस और अन्य नागिरकों पर संगठित हमले की पुष्ट हुई थी। बाद में जांच रिपोर्ट ने ऐसे सभी आरोपों को पक्षपाती और अधूरी जानकारी पर आधारित साबित किया।

COVID-19 के दौरान भी बदनाम करने की कोशिश

कोविड-19 जैसी त्रासदी के दौरान भी राजनीति का ऐसा ही स्वरूप देश देख चुका है। कोराना महामारी के दौरान भी तमाम तरह की अफवाहों को हवा देने की किशिश की गई। विदेशी ताकतों ने भारत को ‘सुपर स्प्रेडर’ कहकर बदनाम करने की कोशिश की तो देश के अंदर से भी कुछ नेताओं ने विदेशी ताकतों के सुर में सुर मिलाए। जबकि बाद में यह स्पष्ट हुआ कि कई पश्चिमी देशों में संक्रमण दर भारत से बहुत अधिक थी और भारत ने सबसे तेज टीकाकरण अभियान चलाया।

कश्मीर से 370 हटाने पर ‘मानवाधिकार उल्लंघन’ का झूठा प्रचार2019 में कश्मीर से 370 हटाने पर भी ऐसे नेताओं ने एकजुता नहीं दिखाई बल्कि ‘मानवाधिकार उल्लंघन’ का झूठा प्रचार करने की कोशिश की गई। हालांकि बाद में जमीनी रपोर्ट्स और विदेश से आए तमाम प्रतनिधिमंडलों ने इन दावों को झूठा और सुनियोजित बताया।

किसान आंदोलन के दौरान आग में घीट डालने की कोशिश

2020–2021 के दौरान किसान आंदोलन को भी कुछ दलों ने ‘अवसर’ की तरह हाथों—हाथ लिया। इस दौरान ‘लोकतंत्र का दमन’ जैसे झूठे नरेटिव गढ़ने की पूरी कोशिश की गई। तमाम टूलकिट स्कैंडल बाद में उजागर हुए जिससे ये साबित हुआ कि आंदोलन को सोशल मीडया हथियार बनाकर पेश किया गया था।

लखीमपुर खीरी घटना में ‘धर्म आधारित हिंसा’ का फर्जी कोण

2021 में लखीमपुर खीरी घटना में ‘धर्म आधारित हिंसा’ का फर्जी कोण तलाशने की कोशिश की गई। कुछ अंतर्राष्ट्रीय रपोर्ट्स ने इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशश की जबकि जांच में यह स्पष्ट हुआ कि घटना में कोई सांप्रदायिक एंगल नहीं था बल्कि मामला राजनीतिक था। इतना ही नहीं रोहिंग्या और अवैध घुसपैठियों पर भारत की नीति तक को ‘इनह्यूमन’ बताने की कोशिश की गई।

पेगासस जासूसी विवाद में बिना सबूत दोष देना

2021 में बिना तकनीकी प्रमाण के कहा गया कि पत्रकारों की जासूसी की जा रही है और इसकी आड़ में माहौल अस्थिर करने की कोशिशें हुईं। बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने इस दावे की हवा निकाल दी, उपकरणों में पेगासस मिला ही नहीं।

लोकतंत्र को ‘खतरे में’ दिखाना (लगातार)

कुछ नहीं तो देश में लगातार लोकतंत्र खतरे में जैसा नरेटिव गढ़ने की कोशिश की जाती रहती है। इस खेल में तमाम विदेशी संस्थाएं शामिल हैं। ये अक्सर भारत के चुनाव, संस्थाओं और न्यायपालिका को कमज़ोर लोकतंत्र का तमगा देने की नाकाम कोशिश करती रही हैं जबकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे सक्रिय लोकतंत्र है, जहां 90 करोड़ मतदाता नियमित रूप से चुनाव में भाग लेते हैं। तमाम विपक्षी दलों के नेता भी ठीक इसी तरह का नरेटिव गढ़ने की कोशिश लगातार कर रहे हैं।

कुछ अच्छी बातें भी सीखें

जो नेता ब्लास्ट जैसी त्रासदी को भी राजनीतिक चश्मे से अवसर के तौर पर देख रहे हैं वे अपने महापुरुषों से नहीं तो अन्य देशों से ही कुछ सीख लें। अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि संकट के समय राष्ट्र राजनीति से ऊपर उठकर एकजुट होता है। अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद रिपब्लिकन और डेमोक्रेट — दोनों एक स्वर में साथ खड़े हुए। ब्रिटेन में 7/7 लंदन ब्लास्ट के बाद सभी दलों ने प्रधानमंत्री के साथ एक साझा सुरक्षा फ्रेमवर्क पर सहमति जताई। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?

दिल्ली ब्लास्ट के बाद इसके ठीक उलट दृश्य देखने को मिला सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप, टीवी स्टूडियो में बयानबाज़ी। ऐसा लगा जैसे विपक्ष ने जांच-रिपोर्ट का इंतजार किए बिना ‘राजनीतिक मुकदमा’ शुरू कर दिया हो।

वोट की राजनीति या राष्ट्रीय सुरक्षा?

सबसे खतरनाक प्रवृत्ति तब दिखी जब देश की आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को भी वोट की रणनीति का हिस्सा बनाने की कोशिश की गई। जब हर राष्ट्रीय संकट को चुनावी चश्मे से देखा जाएगा तो जनता का भरोसा राजनीति से उठना स्वाभाविक है। यही वह मनोवृत्ति है जो तमाम विघटनकारी ताकतों के लिए अप्रत्यक्ष लाभकारी बनती है।

जबकि प्रधानमंत्री मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह दोनों ने अपने बयानों में यही स्पष्ट किया कि इस हमले के दोषियों को सजा मिलकर रहेगी लेकिन विपक्ष ने इस संदेश की गंभीरता को भी सियासी चश्मे से देखा। ऐसा प्रतीत हुआ कि किसी भी मुद्दे को राष्ट्रहित के दायरे में रहने नहीं दिया जाएगा चाहे वह रक्षा हो, आतंकवाद हो, कूटनीति या प्राकृतिक आपदा ही क्यों न हो।

राजनीतिक मतभेद राष्ट्रहित से बड़े नहीं हो सकते

सीमा पार से लगातार भय फैलाने, समाज को बांटने और सरकार पर अविश्वास पैदा करने की कोशिशें लगातार की जा रही हैं, ये किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में अगर देश के नेता भी सिर्फ राजनीतिक रोटियां सेंकने की खातिर पड़ोसी मुल्क के सुर में सुर मिलाएंगे तो इसे जायज कतई नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि जिस तहर की बयानबाजी बीते 24 घंटे में देखने और सुनने को मिली है उसके जख्म भी किसी हमले या अप्रिय घटना से कम नहीं हैं। इसीलिए आज ज़रूरत है उस राजनीतिक परिपक्वता की जो संकट के समय दलगत सीमाओं से ऊपर उठ सके। यह न तो किसी पार्टी का, न किसी राज्य का बल्कि पूरे राष्ट्र का मामला है

विभाजन और अवसरवादिता किसी भी अप्रिय घटना से कम खतरनाक नहीं है। अगर हर संकट को वोट की राजनीति से जोड़ा जाएगा तो इसे इतिहास ‘राजनीतिक तमाशा’ के तौर पर लिखेगा। कभी भी राजनीतिक मतभेद राष्ट्रहित से बड़े नहीं हो सकते, जो आज इसे समझने या मानने को तैयार नहीं हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए…

समर शेष है, नहीं ‘पाप’ का भागी केवल व्याध —
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’

(वरिष्ठ पत्रकार अमित शर्मा की राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय, राजनीतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मुद्दों पर गहरी पकड़ है। वर्तमान में वे प्रसार भारती न्यूज सर्विस के साथ जुड़े हैं।)